मैं बाग़ में हूँ तालिब-ए-दीदार किसी का
गुल पर है नज़र ध्यान में रुख़्सार किसी का
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रुख़्सार शायरी – हम ने उस के लब
हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
हौसले आग को गुलज़ार बना देते हैं
रुख़्सार शायरी – जाने क्यूँ आप के रुख़्सार
जाने क्यूँ आप के रुख़्सार महक उठते हैं
जब कभी कान में चुपके से कहा ईद का चाँद
रुख़्सार शायरी – अल्लाह बनाता हमे मोती तेरी
अल्लाह बनाता हमे मोती तेरी नथ का
बोसा कभी रुख़्सार का लेता कभी लब का…
रुख़्सार शायरी – शायद कि मर गया तेरे
शायद कि मर गया तेरे रुख़्सार देख कर
पैमाना रात माह का लबरेज़-ए-नूर था
रुख़्सार शायरी – उन के रुख़्सार पे ढलके
उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा..
मैंने शबनम को भी शोलों पे मचलते देखा
रुख़्सार शायरी – अपने “रुख़्सार” को “दुपट्टे” से
अपने “रुख़्सार” को “दुपट्टे” से यूँ ना “छुपाया” कीजिये हुज़ूर..
“दीदार-ऐ-हुस्न” की तलब में “जान” पे बन आती है..